Sunday, 19 July 2020

यथार्थवादी शायर कैलाश झा किंकर

धन जोड़ते जाते  मगर / खुशियां नहीं टकसाल से
अति-लोकप्रिय प्रखर दिवगंत कवि कैलाश झा किंकर को श्रद्धांजलि स्वरूप  (पुण्य तिथि - 13.7.2020)

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अंतिका और हिंदी के प्रसिद्ध कवि कैलाश झा किंकर


हिंदी और अंगिका में अपनी सशक्त लेखनी के बलबूते खगड़िया की उर्वर साहित्यिक माटी की उपज शायर कैलाश झा किंकर किसी परिचय के मोहताज नहीं बल्कि दर्जनों पुस्तकें लिखकर उन्होंने हिंदी काव्य-संसार में अपनी सिद्धस्तता का लोहा मनवा लिया और विशिष्ट पहचान कायम की, जहां वे आजीवन अपनी साहित्य-साधना में लीन रहकर अन्य साहित्यकारों का मार्गदर्शन भी करते रहे। अनेकानेक सम्मानों से सम्मानित कविवर किंकर हिंदी साहित्य परिषद खगड़िया के महासचिव और 'कौशिकी' त्रैमासाकी के यशस्वी संपादक के रूप वर्षों से अपने साहित्यकार मित्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे। ग़ज़ल उनकी सर्वप्रिय विधा थी जिसमें उनके आधे दर्जन से भी अधिक संकलन प्रकाशित  हो चुके हैं---'हम नदी की धार में', ' देखकर हैरान हैं सब', ' ज़िन्दगी के रंग हैं कई' ,'मुझको अपना बना बना के लूटेगा', ' गज़ल तो गां-घर में पसर चुकी है' आदि, जिसमें 'मुझको अपना बना के लूटेगा' 'की ग़ज़लों ऐसी धूम मचाईं कि समूचा साहित्य-संसार इन्हें निहारने लगा। जहां वे अपनी शायरी में जीवन की तमाम सच्चाइयों की यथार्थपरक तस्वीर उतारने में सफल रहे।

कल्पनालोक से उतरी ग़ज़ल लेखन की परंपरा ने जब यथार्थ की पथरीली ज़मीन पर अपने कोमल और ख़ूबसूरत पांव धरे तो फिर कल्पनालोक की इंद्रधनुषी चमक यों ही दूर होती गई जिसका परिणाम हुआ कि रमणियों  के सौंदर्य की चकाचौंध की जगह पीड़ित अबलाओं की आह के आंसू हिंदी ग़ज़लों की मंदाकिनी में बहने लगे। और इसी परिदृश्य के मध्य गज़लकार कैलाश झा किंकर का अभ्युदय हुआ जिसने आम आदमी की ज़िंदगी के यथार्थ को एक संजीदा एडवोकेट की भांति सवालिया लहजे में उठाना शुरू कर दिया । घर-घर में घटित होने वाली घटनाओं की न सिर्फ उन्होंने आग ली बल्कि उससे नि:सृत धुओं को भी उन्होंने छोड़ना मुनासिब न समझा:
" ज़िन्दगी क्या है? बता पाता है
जब बुढ़ापे का वक़्त आता है।
जो भी आया है, उसे जाना है
चंद दिवसों का फक़त नाता है।
घोंसले में जो कलह हो हरदम
चैन जीवन का चला जाता है।" 

तो बेरोजगार बेटों से त्रस्त -अभ्यस्त  परिवार के  उस चित्र पर भी दृष्टि डालें जहां अभी-अभी नौकरी की सौगात आई है:
" जीवन में खुशहाली आई
   सब होंठों पर लाली आई।
   बेटों को अब मिली नौकरी
    मुस्काती घर वाली आई।
   दिनभर होली होली थी तो
    सचमुच रात दिवाली आई।" 

तो सचमुच घर में उल्लास रूपी पंछी ने घोंसला ही बना डाला तो शायर का मन भी मचल उठा:
    " आ गए उल्लास के दिन।
       मिट गए संत्रास के दिन।
       लोग   करते  हैं  प्रशंसा
      अब नहीं उपहास के दिन।
       अन्न से घर  भर गया  है
       अब गए उपवास के दिन।" 

कवि को कभी घर की चिंता तो कभी समाज की फिक़्र ने चैन से रहने-जीने न दिया। गंगोत्री -सी खिलखिलाती कभी खुशियां इनके आंगन उतरती तो बाढ़-सी परेशानियां भी उनके घर की हंसी-खुशी को बहाकर ले जातीं :
     " सुंदर घर-परिवार लगे।
        सबसे ऊपर प्यार लगे।
        माता जी का आंचल ही
        जीवन का आधार लगे।
        बाबू  जी  के  बाजू   तो
        नावों की पतवार  लगे। " 

लेकिन बहुत सारी घटनाएं तो जीवन में आती रहती हैं, अभाव -ग़रीबी और अजनबीपन के नाग ने भी घर के  किसी कोने में  कुंडली मार लिया है और  इन्हीं दुखों की इस परिधि में जीते हुए आदमी की जिजीविषा जब कुछ सांसें लेने लगती हैं तो नज़रों से कुछ-कुछ दिखाई भी पड़ने लगती है तो कविवर किंकर भी आशान्वित हो उठते हैं:
    " 'किंकर' आज भले किंकर
       पुत्र 'शंकरानंद ' हुआ  है।"

मगर सारी खुशियां तब काफ़ूर हो जाती हैं जब औफिस के काइयां बड़ा बाबू की जेब में ही सारे विपत्र अंटके कुछ 'आक्सीजन' की मांग करते  नजर आते हैं तो पीड़ित अवाम कलेजा थामकर गेट पर ही बैठ जाता है:
        " बात-बात  में   उठा  पटक।
          बिल सभी गये हैं फिर लटक।
          जीतने  को  तिकड़मी   हुए
          लोकतंत्र  के   सभी   घटक।
          अफसरों की चाल चल  गई
          डर से सब गये हैं अब सटक।"

कार्यालयीन तिकड़मों की ऐसी जीवंत तस्वीर भला कौन खींच सकता है तो ऐसी वारदातों से मन का  खिन्न होना स्वाभाविक है । तभी तो शायर कैलाश झा किंकर के मन में  ऐसी ख़्वाहिशों ने जन्म लेना शुरू कर दिया कि तो उनकी कलम दार्शनिकता के आकाश में उडा़न भरने लगती है:
  " एक ही ख़्वाहिश हमारी, एक ही अरमान है।
    तब तलक जिंदा रहें हम, जब तलक सम्मान है।
   रोशनाई  से  रचे  सब पात्र हो  जाते  अमर
   मांस, हड्डी ,खून का पुतला बड़ा नादान  है।
    आदमी से आदमी की दूरियां खलने लगीं
   व्यर्थ की बातों में शायद खो गई पहचान है।"

लय-छंद और बह्रों के गंभीर प्रवक्ता किंकर जी को हिंदी छंद और उर्दू बह्रों की अच्छी पकड़ थी। यही कारण है कि बिना छंद और लय की रचनाओं से दूरी बनाए रहते थे और इनकी ग़ज़लें भी हमेशा बाबह्र ही हुआ करती हैं।छंदमुक्तता के वे कभी हिमायती न रहे जिसे उनके चंद अश्'आरों में झलक देखी जा सकती है:
     " संगत ढोलक-झाल से
       गाएं जरा सुर-ताल से
       धन जोड़ते जाते  मगर
       खुशियां नहीं टकसाल से।
      ' किंकर' सुनहरी पत्तियां
       रोती बिछुड़कर डाल से।"
या,
       "नज़रों की पहचान  गई
         जब से दौलतमंद हुआ है।
         गद्य- पद्य का सब भेद  मिटा
         यह भी कोई छंद हुआ है?"

उपर्युक्त अश्'आर में यह भी द्रष्टव्य है कि इनके लिए दौलत ही सबकुछ नहीं है और वे साहित्य को ही सबकुछ समझते हैं, सामाजिक प्रतिष्ठा ही उनके लिए सर्वोपरि है । तभी तो वे उन पियक्कड़ों को भी नसीहत देने से न चूकते, जब अपने ही खानदान या गांव के किसी ने ऐसी हरकतें की होगी:
  " बूंद ओंठ पर पर मैंने कभी ली ही नहीं
    पर प्रतिष्ठा रात-दिन की आबकारी में गई।
    खानदानी थी दौलत हम ग़रीबों के लिए
   कुछ शराबी में गई तो कुछ जुआरी में गई।

घर-द्वार, समाज ,चौक-चौराहों से होती हुई किंकर जी की ग़ज़लें राजनीति के दरबार में नहीं बल्कि चौखटे तक पहुंचकर उसे आंखें दिखाने और ललकारने में भी पीछे नहीं रहती। जरा देखें हम इनके चंद अश्"'आर को:
  " पग -पग कौन सहारा देगा।
     बहुत हुआ तो नारा देगा।
     धोखा जो इक बार दिया है
     धोखा वही दुबारा देगा।"

इस तरह इनकी ग़ज़लों के चंद अश्'आर की पड़ताल से हम निश्चित ही उस गवाक्ष तक पहुंचते जहां से शायर की लेखन -प्रविधि, उसके सामाजिक -राजनीतिक-आर्थिक चिंतन और हृदय की गहराइयों में मानव-कल्याण  के लिए कितने दर्द समाहित हैं जिसे हम कल्पना की नाव में  बैठकर नहीं बल्कि यथार्थ के हिमालय पर चढ़कर ही दर्शन कर सकते हैं। एतदर्थ हम कह कह सकते हैं कि शायर कैलाश झा किंकर निश्चित ही यथार्थवाद के शायर हैं मात्र कल्पना में जीना उनके कृतित्व की नियति नहीं रही है।
......

लेखक - ज्वाला सांध्यपुष्प
लेखक का ईमेल आईडी - jwalasandhyapushpa@gmail.com
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इस लेख के लेखक - ज्वाला सांध्यपुष्प



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