प्रार्थनाओं के बेअसर होने के बाद की बेचैनी
*आज फिर स्कूल में
एक बच्चे की लाश मिली- वाशरूम में
स्कूल के ही
किसी बच्चे ने गला रेत दिया उसका।
*एतबार नहीं होता
पर करना पड़ा
सारे तथ्य और सबूत
बच्चे के खिलाफ़ थे।
*अब सवाल यह नहीं
कि बच्चा स्कूल में
चाकू कहाँ से लाया...?
*हैरानी तो इस बात पर है
कि इस तरह अनिष्ट के लिए
जितनी घृणा और प्रचंडता की
ज़रूरत होती है
वह कहाँ से लाया - बच्चा...?
&बच्चे के बस्ते के
किसी कोने में
नफ़रत का बीज तो नहीं पल रहा?
कवि-कथाकार राजेश झरपुरे की यह विचलित कर देने वाली कविता उनके नये काव्य-संग्रह 'कुछ इस तरह' में संकलित है।राजेश झरपुरे के इस संग्रह की कविताओं में एक बेचैनी और कसमसाहट है, जो प्रार्थनाओं के बेअसर होने के बाद पैदा होती है।
संग्रह की कविताओं में एक भाव सबलता से आता है कि अपनी दुर्गति के पीछे कुछ अपनी कमज़ोरी भी होती है। हमारे पास एक दूसरी राह पर चलने का विकल्प भी साथ-साथ होता है, भले ही वह बहुत जोखिम का हो। इसलिए मानो वे दो उँगलियों में से एक पकड़ने के लिए देते हैं; अब आप ही चुनिए-
"आप सिर बचाना चाहते हैं
या टोपी?"
इस संग्रह में ऐसा आम आदमी है, जो जीवन भर एक आकाश-कुसुम के फेर में मानो बढ़ा चला जाता है। उसका हर कदम एक अलक्ष्य उम्मीद पर बढ़ रहा होता है, किंतु उसका हासिल तमाम तरह की ठोकरें ही होती हैं। नौकरी, शादी, बच्चे, जिम्मेदारी फिर रिटायरमेंट; और अंततः-
"ता-उम्र दुःखों के बीच गुज़ार देने के बाद
सुखी हो जाने
मुक्त हो जाने से डर जाता है
वह रिटायर होता आदमी।"
इसमें अनेक कविताएँ हैं, जो पचास पार के वय को अलग-अलग संदर्भों में देखती हैं। पचास पार की नौकरी, पचास पार की गृहस्थी, पचास पार का प्रेम, फिर साठ तक आते-आते रिटायरमेंट की प्रक्रिया, फिर रिटायरमेंट के बाद का उपेक्षित जीवन। अपने ही बनाये घर के बाहर वे पति-पत्नी बैठे रहते हैं, जैसे घर के बाहर लिख देते हैं- शुभ और लाभ। बस इनके जीवन का शुभ-लाभ अलभ्य ही रह जाता है।
राजेश झरपुरे ने अपने आस-पास को प्रामाणिकता से कविता में ढालने का काम किया है। खनिक जीवन, उनकी मेहनत, संघर्ष, दुर्घटना और मौत पर लिखी कविताएँ एक परिदृश्य रचती हैं। यद्यपि इनमें बिंबों और कहन का दुहराव भी है, तथापि ऐसे उपेक्षित खनिक मज़दूरों को कविता में नायकत्व देना अच्छा भी लगता है। नेमीचंद उईके, रामप्रसाद, रविशंकर, राजेश कनोजे, रफ़ीक जैसे जीते-जागते और मरते हुए लोग हैं, जो अंधेरे को खदेड़ने के प्रयास में लगे रहे और अपना बलिदान करते रहे। इन कविताओं में लेखक का कथाकार भी बोलता प्रतीत होता है। इनमें पात्र हैं, चरित्र हैं, चरित्रों का विकास है, छोटे-छोटे डिटेल्स हैं और सीधी-सादी भाषा है। इनके द्वारा कविता बुनी जाती है। कविताओं पर परिवेशगत ईमानदारी की छाप है।
व्यक्तिगत भावनाओं के प्रति भी उसी ईमानदारी को देखा जा सकता है। पचास पार प्रेम करता कवि कहता है-
"मैं समझ नहीं पाता
उम्र के इस ठौर पर
ऐसा क्यों हो रहा मेरे साथ?
*क्या कल तक
बंधन में था मेरा प्रेम?"
संबंधों पर कविता लिखते हुए आदमी अक्सर भावुकता और आदर्शवादिता का शिकार हो जाता है। झरपुरे जी ने इसे पूरी तरह से तोड़ा है। अभी फादर्स डे पर ममता सिंह ने सवाल किया था कि सब के पिता इतने अच्छे-अच्छे ही हैं, तो समाज में सामान्य रूप से दिखने वाले पुरुष कहाँ से आ गये?
इस संग्रह की 'पिता तुम ईश्वर हो' शीर्षक कविता पूरी विद्रूपता से उसका जवाब प्रस्तुत करती है:-
"वैसे भी तुम
कभी पिता थे ही नहीं
तुम तो
माँ का
माँस नोचने वाले
एक आदमख़ोर भेड़िया थे
और हम सब भाई
तुम्हारे .....।"
'आमुख' में मोहन कुमार डहेरिया ने इस कविता पर टिप्पणी की है- "यहाँ उनकी कलम नश्तर से भी ज़्यादा निर्मम और क्रूर होकर तथाकथित सामाजिक ताने-बाने की चीड़-फाड़ करती है। बड़ी होती असंवेदनशील नयी पीढ़ी के लिए यह कविता एक बेहतरीन सामाजिक दस्तावेज़ मानी जा सकती है।"
इसी तरह 'छोटी बहन' कविता में मारे जाने के तमाम प्रयासों के बाद भी जन्मी तीसरी बेटी कहती है-
"अच्छा हुआ मेरी जगह
उस कोख से
नहीं जन्मा कोई लड़का
वरन् ज़्यादा उपेक्षित होतीं वे।"
तमाम उपेक्षाओं को सहती यह बेटी मानो अपने ही माता-पिता को शाप देती है कि तुम निपूते ही रहो।
संग्रह एक मिला-जुला असर पैदा करता है, जिसमें यथार्थ को नंगा देखने की अकुलाहट, बेचैनी, मजबूरी और विरोध है।
............
पुस्तक – कुछ इस तरह (कविता संग्रह)
कवि - राजेश झरपुरे ( मो.न. 9425837377 )
प्रकाशक – रश्मि प्रकाशन , लखनऊ
सहयोग राशि – 175 रूपये
समीक्षक - अस्मुरारी नंदन मिश्र
समीक्षक का ईमेल आईडी - asmuraribhu@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com
"मैं समझ नहीं पाता
उम्र के इस ठौर पर
ऐसा क्यों हो रहा मेरे साथ?
*क्या कल तक
बंधन में था मेरा प्रेम?"
संबंधों पर कविता लिखते हुए आदमी अक्सर भावुकता और आदर्शवादिता का शिकार हो जाता है। झरपुरे जी ने इसे पूरी तरह से तोड़ा है। अभी फादर्स डे पर ममता सिंह ने सवाल किया था कि सब के पिता इतने अच्छे-अच्छे ही हैं, तो समाज में सामान्य रूप से दिखने वाले पुरुष कहाँ से आ गये?
इस संग्रह की 'पिता तुम ईश्वर हो' शीर्षक कविता पूरी विद्रूपता से उसका जवाब प्रस्तुत करती है:-
"वैसे भी तुम
कभी पिता थे ही नहीं
तुम तो
माँ का
माँस नोचने वाले
एक आदमख़ोर भेड़िया थे
और हम सब भाई
तुम्हारे .....।"
'आमुख' में मोहन कुमार डहेरिया ने इस कविता पर टिप्पणी की है- "यहाँ उनकी कलम नश्तर से भी ज़्यादा निर्मम और क्रूर होकर तथाकथित सामाजिक ताने-बाने की चीड़-फाड़ करती है। बड़ी होती असंवेदनशील नयी पीढ़ी के लिए यह कविता एक बेहतरीन सामाजिक दस्तावेज़ मानी जा सकती है।"
इसी तरह 'छोटी बहन' कविता में मारे जाने के तमाम प्रयासों के बाद भी जन्मी तीसरी बेटी कहती है-
"अच्छा हुआ मेरी जगह
उस कोख से
नहीं जन्मा कोई लड़का
वरन् ज़्यादा उपेक्षित होतीं वे।"
तमाम उपेक्षाओं को सहती यह बेटी मानो अपने ही माता-पिता को शाप देती है कि तुम निपूते ही रहो।
संग्रह एक मिला-जुला असर पैदा करता है, जिसमें यथार्थ को नंगा देखने की अकुलाहट, बेचैनी, मजबूरी और विरोध है।
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पुस्तक – कुछ इस तरह (कविता संग्रह)
कवि - राजेश झरपुरे ( मो.न. 9425837377 )
प्रकाशक – रश्मि प्रकाशन , लखनऊ
सहयोग राशि – 175 रूपये
समीक्षक - अस्मुरारी नंदन मिश्र
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