Friday 28 August 2020

अगर है तू गुहर अभी ज़रूरी है चमक / कुमार पंकजेश की गज़लें संपादकीय टिप्पणी के साथ ( Poems by Kumar Pankajesh with Editor's comments)

 तीन गज़लें 

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Editor's comment - 

Kumar Pankajesh is basically a romantic poet though the tinge of his romance traverse the realms of the all sorts of harsh realities in the world. The realities prevailing in family, society and in the all spheres of life. His language is lucid and connotations are comprehensible yet they are neither simplistic nor light-hearted. He would never flinch back from touching thorns in an attempt to looking at the magical beauty of the flowers. The beauty of stark contrast makes the imagery more sedate - 1.मुदावा का बहुत था वादा जिनका /कुरेदें ज़ख़्म वो चारागरी में. 2.बहुत ही संगदिल है हुस्न तेरा / मगर होती है उल्फ़त बेरह्मी में 

The romance is soft, shy and in undertone - 1. छुपा के अपने घाव भी रखेंगे इस तरह  '/ कि देखने में घाव भी हरा नहीं लगे  2. ख़ता तेरी जहाँ नज़र में सब के है चुभे / हमें तेरी ख़ता बुरी ज़रा नहीं लगे

And no true poet can shirk from the social discourse. He provokes a person to show his maximum potential and that too at a time when it is badly needed - 1. अगर है तू गुहर अभी ज़रूरी है चमक /वो सच नहीं समय पे जो खरा नहीं लगे. If you don't act when it is required then you are bound to live in your misery - हज़ारों बार मरता है ये इंसां / फ़क़त एक ही अदद इस ज़िंदगी में.

With an aim to arouse the inner determination for the betterment of the society the poet almost challenges a person that he has no capacity to do good - दूर कर दे फ़रेबे तारीकी / दीप ऐसा जला नहीं कोई

And then there is a final grumble at the  nonchalant garrulous souls - लतीफ़ा था कि ताना ये न समझा / बहुत पोशीदा था संजीदगी में. 

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सम्पादकीय टिपण्णी का हिंदी अनुवाद  - 
कुमार पंकजेश मूल रूप से एक रोमांटिक कवि हैं, हालांकि उनके रोमांस का तड़का दुनिया में सभी प्रकार की कठोर वास्तविकताओं का अहसास कराता है। परिवार, समाज और जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रचलित यथार्थ। उनकी भाषा स्पष्ट है और धारणाएं बोधगम्य, फिर भी वे न तो सरल हैं और न ही हल्के-फुल्के। फूलों के जादुई सौंदर्य को देखने की कोशिश में कांटों को छूने से वह कभी पीछे नहीं हटती। विरोधाभास की सुंदरता कल्पना को और अधिक लुभावना बना देती है -  1.मुदावा का बहुत था वादा जिनका /कुरेदें ज़ख़्म वो चारागरी में. 2.बहुत ही संगदिल है हुस्न तेरा / मगर होती है उल्फ़त बेरह्मी में 
 रोमांस नरम, शर्मीला और दबा-दबा सा  है - 1. छुपा के अपने घाव भी रखेंगे इस तरह  / कि देखने में घाव भी हरा नहीं लगे  2. ख़ता तेरी जहाँ नज़र में सब के है चुभे / हमें तेरी ख़ता बुरी ज़रा नहीं लगे
और कोई भी सच्चा कवि सामाजिक सरोकार से बच नहीं सकता। यह शायर भी एक व्यक्ति को अपनी अधिकतम क्षमता दिखाने के लिए उकसाता है  और वह भी ऐसे समय में जब उसकी बहुत ज्यादा जरूरत हो  - 1. अगर है तू गुहर अभी ज़रूरी है चमक /वो सच नहीं समय पे जो खरा नहीं लगे.  यदि आप आवश्यक होने पर कार्रवाई नहीं करते हैं तो आप अपने दुख में जीने के लिए बाध्य हैं -  हज़ारों बार मरता है ये इंसां / फ़क़त एक ही अदद इस ज़िंदगी में.
समाज की भलाई के लिए आंतरिक दृढ़ संकल्प जगाने के उद्देश्य से यह शायर एक व्यक्ति को  लगभग चुनौती देते हुए कहता है कि वह अच्छा करने की जैसे क्षमता ही नहीं रखता है-  दूर कर दे फ़रेबे तारीकी / दीप ऐसा जला नहीं कोई
और अंत में वह बेपरवाह वाचाल लोगों के आचरण पर शिकायती लहज़े में कहता है - लतीफ़ा था कि ताना ये न समझा / बहुत पोशीदा था संजीदगी में.


 ग़ज़ल 1

हुज़ूर अपनी दोस्ती सज़ा नहीं लगे
मज़ाक़ ऐसा कीजिए बुरा नहीं लगे

छुपा के अपने घाव भी रखेंगे इस तरह 
कि देखने में घाव भी हरा नहीं लगे 

अगर है तू गुहर अभी ज़रूरी है चमक
वो सच नहीं समय पे जो खरा नहीं लगे

किया है तुमने प्यार इस तरह कभी हमें 
भरा हो जाम भी मगर भरा नहीं लगे

कहो कहाँ असर तेरी दुआओं में रहा
हसद से की गयी दुआ, दुआ नहीं लगे

ख़ता तेरी जहाँ नज़र में सब के है चुभे
हमें तेरी ख़ता बुरी ज़रा नहीं लगे

सितम किया हक़ीर जानकर हमें तो क्या
मुख़ालफ़त है की मरा हुआ नहीं लगे
(गुहर /सही शब्दरूप 'गौहर'- मोती, हसद - ईर्ष्या, हकीर- घृणित, मुख़ालफ़त - विरोध
मुख़ालफ़त है 'की' /सही शब्दरूप -'कि')
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ग़ज़ल 2

नहीं है इतनी शिद्दत तिश्नगी में 
तो रक्खा क्या तुम्हारी बंदगी में 

हज़ारों बार मरता है ये इंसां
फ़क़त एक ही अदद इस ज़िंदगी में 

बदल जाती है पल में जैसे ये रुत
यही फ़ितरत है हर एक आदमी में

मुदावा का बहुत था वादा जिनका 
कुरेदें ज़ख़्म वो चारागरी में

बहुत ही संगदिल है हुस्न तेरा
मगर होती है उल्फ़त बेरह्मी में 

लतीफ़ा था कि ताना ये न समझा
बहुत पोशीदा था संजीदगी में
(शिद्दत-तीव्रता , तिश्नगी-प्यास , बंदगी-पूजा, अदद-संख्या, मुदावा-इलाज , चारागरी-उपचार. संगदिल-पत्थरदिल तंज़-व्यंग्य पोशीदा-छुपा हुआ , लतीफ़ा-चुटकुला , संजीदगी- गंभीरता।ग़ज़ल)
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ग़ज़ल 3

दोस्त अब तक मिला नहीं कोई
दुश्मनों से गिला नहीं कोई

मार दे मेरी पीठ पर ख़ंजर
इतना प्यारा दिखा नहीं कोई

मानता हूँ कि ऐब हैं मुझमें
दूध का पर धुला नहीं कोई

बाँट लेता किसी से दुख अपना
मुझसे इतना खुला नहीं कोई

जो बुराई से रोक ले मुझको
दोस्त इतना भला नहीं कोई

दूर कर दे फ़रेबे तारीकी
दीप ऐसा जला नहीं कोई
(फ़रेबे तारीकी = अन्धकार का धोखा)
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शायर (Poet) - कुमार पंकजेश (Kumar Pankajesh)
शायर का ईमेल आईडी (Email ID of the poet) - kumarpankajesh19@gmail.com
टिप्पणीकार (Commentator) - हेमन्त दास 'हिम' (Hemant Das 'Him')
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी (Email ID of this blog for feedback)- editorbejodindia@gmail.com


3 comments:

  1. वाक़ई सुंदर ग़ज़लें। सम्पादकीय भी उतना ही ख़ूब। साधुवाद आप दोनों को।

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    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद सराहना हेतु।

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