तीन गज़लें
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Editor's comment -
Kumar Pankajesh is basically a romantic poet though the tinge of his romance traverse the realms of the all sorts of harsh realities in the world. The realities prevailing in family, society and in the all spheres of life. His language is lucid and connotations are comprehensible yet they are neither simplistic nor light-hearted. He would never flinch back from touching thorns in an attempt to looking at the magical beauty of the flowers. The beauty of stark contrast makes the imagery more sedate - 1.मुदावा का बहुत था वादा जिनका /कुरेदें ज़ख़्म वो चारागरी में. 2.बहुत ही संगदिल है हुस्न तेरा / मगर होती है उल्फ़त बेरह्मी में
The romance is soft, shy and in undertone - 1. छुपा के अपने घाव भी रखेंगे इस तरह '/ कि देखने में घाव भी हरा नहीं लगे 2. ख़ता तेरी जहाँ नज़र में सब के है चुभे / हमें तेरी ख़ता बुरी ज़रा नहीं लगे
And no true poet can shirk from the social discourse. He provokes a person to show his maximum potential and that too at a time when it is badly needed - 1. अगर है तू गुहर अभी ज़रूरी है चमक /वो सच नहीं समय पे जो खरा नहीं लगे. If you don't act when it is required then you are bound to live in your misery - हज़ारों बार मरता है ये इंसां / फ़क़त एक ही अदद इस ज़िंदगी में.
With an aim to arouse the inner determination for the betterment of the society the poet almost challenges a person that he has no capacity to do good - दूर कर दे फ़रेबे तारीकी / दीप ऐसा जला नहीं कोई
And then there is a final grumble at the nonchalant garrulous souls - लतीफ़ा था कि ताना ये न समझा / बहुत पोशीदा था संजीदगी में.
मज़ाक़ ऐसा कीजिए बुरा नहीं लगे
छुपा के अपने घाव भी रखेंगे इस तरह
कि देखने में घाव भी हरा नहीं लगे
अगर है तू गुहर अभी ज़रूरी है चमक
वो सच नहीं समय पे जो खरा नहीं लगे
किया है तुमने प्यार इस तरह कभी हमें
भरा हो जाम भी मगर भरा नहीं लगे
कहो कहाँ असर तेरी दुआओं में रहा
हसद से की गयी दुआ, दुआ नहीं लगे
ख़ता तेरी जहाँ नज़र में सब के है चुभे
हमें तेरी ख़ता बुरी ज़रा नहीं लगे
सितम किया हक़ीर जानकर हमें तो क्या
मुख़ालफ़त है की मरा हुआ नहीं लगे
ग़ज़ल 2
नहीं है इतनी शिद्दत तिश्नगी में
तो रक्खा क्या तुम्हारी बंदगी में
हज़ारों बार मरता है ये इंसां
फ़क़त एक ही अदद इस ज़िंदगी में
बदल जाती है पल में जैसे ये रुत
यही फ़ितरत है हर एक आदमी में
मुदावा का बहुत था वादा जिनका
कुरेदें ज़ख़्म वो चारागरी में
बहुत ही संगदिल है हुस्न तेरा
मगर होती है उल्फ़त बेरह्मी में
लतीफ़ा था कि ताना ये न समझा
बहुत पोशीदा था संजीदगी में
दोस्त अब तक मिला नहीं कोई
दुश्मनों से गिला नहीं कोई
मार दे मेरी पीठ पर ख़ंजर
इतना प्यारा दिखा नहीं कोई
मानता हूँ कि ऐब हैं मुझमें
दूध का पर धुला नहीं कोई
बाँट लेता किसी से दुख अपना
मुझसे इतना खुला नहीं कोई
जो बुराई से रोक ले मुझको
दोस्त इतना भला नहीं कोई
दूर कर दे फ़रेबे तारीकी
दीप ऐसा जला नहीं कोई
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वाक़ई सुंदर ग़ज़लें। सम्पादकीय भी उतना ही ख़ूब। साधुवाद आप दोनों को।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सराहना हेतु।
DeleteÑice sir
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