क्या ईश्वर / इतनी भाषाएँ जानता है ?
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पटना। “कविताएँ अब सिर्फ प्रेम की अभिव्यक्ति तक ही सीमित नहीं रह गई हैं, बल्कि अब यह समाज और राजनीतिक ताने-बाने की विद्रूपताओं को उद्घाटित करने का जरिया भी बन गई हैं. आज के कवि प्रेम से आगे बढ़कर अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं को अपनी कविताओं में समाहित कर रहे हैं और उसमें सफल भी हो रहे हैं. आज की युवा पीढ़ी के मन में जो भावनाएं उमड़-घुमड़ रही हैं, वे कविता के रूप में सामने आ रही हैं”. यह बातें जाने-माने पत्रकार और साहित्यकार प्रसून लतांत ने विन्यास साहित्य मंच द्वारा आयोजित समकालीन कविताओं पर केन्द्रित काव्य संध्या की अध्यक्षता करते हुए कही. विन्यास साहित्य मंच के इस कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि नई दिल्ली से राधेश्याम तिवारी और विशिष्ट अतिथि राकेश रेणु उपस्थित रहे. काव्य संध्या में नै दिल्ली से अपर्णा दीक्षित, कोलकाता से राज्यवर्धन, डॉ. अभिज्ञात, एकलव्य केसरी, पटना से शहंशाह आलम, राजकिशोर राजन, नताशा, पूनम सिन्हा ‘श्रेयसी’, रश्मि अभय, मुजफ्फरपुर से पंखुरी सिन्हा और हवेली खड़गपुर से ब्रह्मदेव बंधु ने समकालीन कविताओं का पाठ किया.लगभग दो घंटे तक चले इस कार्यक्रम में श्रोता के रूप में भी अनेक सुप्रतिष्ठित कवि और साहित्यकार जुड़े रहे.. करीब ढाई घंटे तक चले इस काव्य संध्या का संचालन दिल्ली से युवा साहित्यकार चैतन्य चंदन ने तथा धन्यवाद ज्ञापन विन्यास साहित्य मंच के अध्यक्ष पटना के वरिष्ठ शायर घनश्याम ने किया। गूगल मीट ऐप्प के माध्यम से सम्पन्न इस कार्यक्रम में अंत तक कई श्रोता जुड़े रहे।
काव्य संध्या में सुनाई गई कविताओ की झलक नीचे प्रस्तुत है:
डॉ.अभिज्ञात ने भारतीय राजनीति पर कटाक्ष करते हुए कहा -
बारिश करीब हो
और
चारों ओर यदि पसरा पड़ा हो सन्नाटा
समझ लेना
यह सांप के केंचुर बदलने का
समय है
कुछ ही अरसे में तमाम सांप अपने नये कलेवर में
निकल पड़ेंगे बिल से।
नताशा ने अपनी कविता के माध्यम से सन्नाटे के कोलाहल को समझाने की कोशिश की -
आवाज थक कर बुझने के बाद
शुरू होता है सन्नाटे का कोलाहल
रात की उर्वर ज़मीन पर
उग आतें असंख्य प्रश्न
जो दिन भर रौंदे जाते हैं सड़कों पर
पंखुरी सिन्हा ने औरतों की वेदना को अपनी कविता के माध्यम से स्वर देने की कोशिश की:--
'धो रही हूँ तुम्हारे खुरों के निशान,
अपने कंधों पर से
दुर्घटना सड़क पर नहीं, मेरे अन्दर घटी है,
पर मैं बताऊंगी नहीं तुम्हें
अब तुम मेरे राजदार नहीं रहे......'
शहंशाह आलम ने संकट की घडी में भी हौसला बनाए रखने की मुखालफत की:--
अभी मुसाफ़िर आने बन्द नहीं हुए
अभी समुंदर में मछलियाँ कम नहीं हुईं
अभी अख़बारों में अच्छी ख़बरें आनी बन्द नहीं हुईं
अभी लोगों ने एक-दूसरे से मिलना नहीं छोड़ा
राजकिशोर राजन ने जलवायु परिवर्तन की समस्या को अपनी कविता के माध्यम से उभारा:
वसंत को भी अब तक
कोई नहीं मिली पगडंडी
कि मुंह दिखाने भर को
किसी एक दिन वह पहुंचे मेरे गाँव।
ब्रह्मदेव बन्धु ने बाढ़ की विभीषिका को अपनी कविता में ढालते हुए कहा -
सैलाब की मुट्ठी में कैद है मेरा गाँव
पानी ने लील लिया है
अनाज, जलावन, चूल्हे
अम्मा भूखी है दो दिनों से
घुटनों पानी में खड़ी गाय भी
पत्नी कभी भी प्रसव-पीड़ा से कराह उठ सकती है
आखिरी महीना चल रहा है
रश्मि अभय ने प्रेम की पीड़ा को कुछ इस तरह दर्शाय
मुश्किल हुआ था मुझे
तुम्हें दिल से निकालना
ठीक उसी तरह
जैसे मुश्किल है तुम्हारे लिए
किसी से प्यार निभाना...
राधेश्याम तिवारी ने भाषाई विभेद पर सवाल उठाते हुए पूछा -
दुनिया में 6809 भाषाएं हैं
और सभी भाषाओं के लोग
अपनी-अपनी भाषा में
ईश्वर को पुकारते ही होंगे
क्या ईश्वर
इतनी भाषाएँ जानता है ?
पूनम सिन्हा ‘श्रेयसी’ ने तेजी से बढ़ते कंक्रीट के जंगलों पर चिंता जताई -
शहर से गुजरते हुए
पढा जा सकता है-
वर्त्तमान के शिलालेखों पर
अतीत के दस्तावेज़ !
देखा जा सकता है-
बढ़ती आबादी...
पसरता शहर...
कंक्रीट का जंगल!
चैतन्य चन्दन ने बाढ़ की विभीषिका को राजनीतिक अवसर मानने वालों पर सवाल उठाया -
जबसे सूखने लगा है
उनकी आँखों का पानी
आसमान से
बरसने लगी है आफत
डूबने लगी हैं
उम्मीदें, जीवन की
सपने, नौनिहालों के
वजूद, मानवता का
एकलव्य केसरी ने लॉकडाउन की वजह से सूने पड़े झूले की वेदना को अपनी कविता से दर्शाया -
पेड़ की टहनी से
लटकता झूला
सूर्योदय से लेकर
शाम ढलने तक
राह तकता है
नन्हें-मुन्नों की
युगल जोड़ों की
और सखियों की
ताकि दूर हो
उसकी तन्हाई
अपर्णा दीक्षित ने तिलचट्टे को माध्यम बनाकर सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करने की कोशिश की -
किताबों की अलमारी से तेजी से रसोई घर की तरफ भाग गया
तिलचट्टा है सरकार!
किसी मैदान में, चौराहे पर, दुकान में, या फिर कॉलर पकड़कर घर से खींच लाए जाते है,
जुर्म सिर्फ इतना, साला तिलचट्टा है, /जूठे खाने पर नज़र रखता है।
राज्यवर्धन ने चाँद को अर्बन नक्सल बताते हुए कहा -
कैसे नींद आए चाँद को
फुटपाथ पर आज भी
भूखे पेट सो गए हैं कई
पांच सितारा जश्न में
डूबे हुए लोगों के साथ
मित्रों!
चाँद भी अर्बन नक्सल बन गया है
जो फुटपाथ पर रहनेवाले लोग के साथ है
राकेश रेणु ने मखाने के गुणों को ज़िन्दगी के पहलुओं से जोड़ते हुए सुनाया -
एक-एक दाने में अनेक साँसें बसी
लावा नहीं, उम्मीद है फूली हुई, गर्भवती के पेट सी
उसकी चमक में कई-कई आँखों की चमक है
कुरमुरेपन में कई-कई हाथों की उष्मा
जानकार जिन विटामिनों और खनिजों का लाभ बताते हैं इससे
वास्तव में उन हाथों के पसीने और लहू से निकलता है।
अंत में विन्यास साहित्य मंच के अध्यक्ष घनश्याम द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के साथ समकालीन कविताओं के पाठ के इस सार्थक कार्यक्रम का समापन हुआ.
.....
रपट का आलेख - चैतन्य चन्दन
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प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी -editorbejodindia@gmail.
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