Monday, 5 October 2020

आईटीएम काव्योत्सव नवी मुम्बई की 115 वीं गोष्ठी 4.10.2020 को सम्पन्न

 कैसी आज़ादी पाई  है, नैतिकता काफूर हुई 

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जैसा कि आप सभी जानते हैं विजय भटनागर के संयोजन से अनिल पुरबा, विश्वम्भर दयाल तिवारी, चन्दन अधिकारी,  सेवा सदन प्रसाद, वंदना श्रीवास्तव आदि मुख्य स्तंभों की सहायता से चल रही नवी मुंबई की साहित्यिक संस्था आईटीएम काव्योत्सव अपने ही कीर्तिमानों को ध्वस्त करती हुई आगे बढनेवाली संस्था है जो पिछले नौ वर्षों तक लगतातर मासिक कवि गोष्ठी आयोजित करने के बाद अपने दसवें वर्ष में भी उसी ऊर्जा और तेजस्विता के साथ चल रही है. जाहिर है कि अप्रील  2020 से यह अपने व्हाट्सएप्प  ग्रुप पर ही चल रही है पर उसी आश्चर्यजनक समयबद्धता और अनुशासन के साथ. 

इस बार भी आईटीएम काव्योत्सव की गोष्ठी व्हाट्सएप्प के आभासी पटल पर ही सम्पन्न हुई. इस बार की गोष्ठी की अध्यक्षा थींं मधु श्रृंगी और संचालन किया विश्वम्भर दयाल तिवारी ने. एक पूर्व-निर्धारित सूची सबके सामने रख दी गई और उसमें दिए गए क्रम के अनुसार ही कविगण स्वत: पटल पर अपनी रचनाएँ रखते गए. ऐसा करने से व्यवस्था बनी रही और समय से कार्यक्रम सम्पन्न हो गय.  सरस्वती वंदना अपने मधुर कंठ से प्रस्तुत की वंदना श्रीवास्तव ने और राष्ट्रगाण किया भारत भूषण शारदा ने.

आइये इस अवसर पर डाली गई कविताओं की झलक देखें- 

कविता  प्रस्तुत करने का पूर्व  निर्धारित क्रम यह था - 
1) श्री किशन तिवारी भोपाल*
2) श्री विजय कुमार भटनागर 
3) श्रीमती मधु श्रृंगी
4) श्रीमती कुमकुम वेदसेन 
5) श्री विजय कान्त द्विवेदी  
6) श्री चन्दन सिंह अधिकारी
7) श्री सेवा सदन प्रसाद 
8) श्री अशोक प्रीतमानी 
9) श्री भारत भूषण शारदा 
10) डाॅ सतीश शुक्ल
11) श्रीमती चन्द्रिका व्यास 
12) श्री राम प्रकाश विश्वकर्मा
13) जनाब दिलशाद सिद्दीकी 
14) श्री प्रकाश चन्द्र झा 
15) श्री रामेश्वर प्रसाद गुप्ता
16) श्री राम स्वरूप साहू
17) श्री पुरुषोत्तम चौधरी  
18) श्री अनिल पुरबा 
19) श्रीमती शोभना ठक्कर
20) श्री दिलीप ठक्कर*
21) श्रीमती वन्दना श्रीवास्तव*
22) जनाब हनीफ मोहम्मद 
23) श्रीमती विजया वर्मा 
24) श्री सत्य प्रकाश श्रीवास्तव 
25) डाॅ हरिदत्त गौतम 'अमर'
26) डाॅ श्रीमती अलका पाण्डेय 
27) श्रीमती नेहा वैद्य 
28) श्री हेमंत दास 'हिम'
29) श्री विश्वम्भर दयाल तिवारी

किशन तिवारी भोपाल 
हमारी ज़िंदगी की दास्ताँ उलझी हुई सी है 
कहीं टूटी हुई सी है कहीं बिखरी हुई सी है 
ये सच है बात हमको बात करना ही नहीं आता 
तेरी हर बात मख़मल सी मगर चुभती हुई सी है 
नदी के साथ चलकर मैं तुम्हारे द्वार तक आया 
आना तेरी समन्दर  की  तरह  मचली हुई सी है 
हमें बर्दाश्त करने का तजुर्बा है बहुत लेकिन 
मैं टूटा हूँ बहुत और तू अभी रूठी हुई सी है 
चला मैं धूपभर अब शाम की परछाइयाँ लम्बी 
अंधेरा  बढ़ रहा  है ये शम्अ  बुझती  हुई  सी है 

विजय भटनागर -
जमाने में कितने भी मशहूर हो जाये
फरिश्ते न सही इन्सान जरूर हो जाये।
आमद रफ्त उतनी ही बढाईये आप
दोस्त करीब आकर  न दूर हो जाये।
बस खुदही ना गिर जाये अपनी नजर से
आदमी इस कदर ना मजबूर हो जाये।
कोई किसी मिलेऔर मुंह फेरले
ऐसे ना जहां में  दस्तूर हो जाये।
खुदी भी जरूरी है जिंदगी के लिए 
नहो इतने खुद्दार कि मगरूर हो जाये।
विजय मांग रहा है दुआ खुदा से 
उसके सब काम जहां में सुर्ख रूह हो जाय ।

सत्यप्रकाश श्रीवास्तव -
गाँधी तेरे जन्म दिवस की, 
शत-शत तुम्हें बधाई।
150 वां जन्म दिवस है,
 जन जन कहे बधाई।1।
2 अक्टूबर को जन्मे,
2-2 अलंकार हैं पाये तुमने,
एक महात्मा की पदवी है।
जिसका कोई न सानी,
तेरा नाम हर दिल पे लिखा है,
है बाकी सब बेमानी।2।
राष्ट्रपिता भी तुम कहलाये,
इसका गौरव है हमको।
कर स्वीकार पुष्पाजंली हमारी,
करो क्रतार्थ हम सबको।3।
2.10, 150 वां जन्मदिन था,
है यह अद्भुत पर्व हमारा।
हर भारतीय का हो सर ऊँचा,
कोई आंख उठा न पाये।4।
हमें शक्ति दो सत्य, अहिंसा, न्याय, धर्म हों,
अस्त्र शस्त्र सब हमारे।
 लोहा भारत का माने दुनियां,
हो सोने की चिड़िया फिर भारत।5।

कुमकुम वेद सेन -
‌* गलतफहमी*
अनबन का जन्मदाता
गलतफहमी कहलाता
चाहे हो परिस्थिति
या अपने पराए की जुबानी
दिल दिमाग के असंतुलन से
पैदा करती है गलतफहमी
रिश्तो में पैदा करती है दीवार
अपने को अपनों से दूर करती है गलतफहमी
**कभी न दो इसे हवा
इसका काम है तोड़ना
तोड़कर बिखरा देना
कोशिश करो हमेशा
सुलझी बातों का दवा
लगा दूर करै गलतफहमी
यह तो एक संक्रमण है
व्यक्ति से व्यक्ति में फैले
करो नजर अंदाज अफवाहों 
विवेक और सहारा लो 
क्षमा याचना और विस्मृत का
जीवन में लौटेगीं खुशियों
मिटेगी हर दीवार
जब होगी दूर गलतफहमी
के पनपते फैलते मिथ्याएं


विजयकान्त द्विवेदी -
*महात्मा गांधी*
सहज समीर रोज बहती है
बहती नहीं हर रोज आंधी ।
हुए भारत मां के धन्य लाल
उनमें एक श्रेष्ट हुए  गांधी ।।१!!
गौरव करे मनुजता जिस पर
था मानव मे देवत्व सृजन ।
सद्गुण के भाव सभी मिलकर
धरे हुये थे जो मानव तन ।।२!!
सत्य अहिंसा करुणा जिसमे
थे भरे हुए अतिशय अनमोल ‌।
व्रत अस्तेय अभय अपरिग्रहादि
जनहित कार्य थे जीवन मोल।।३!।
युगपुरुष अवतरित हुए जब जब
करने जगत मे अद्भुत काम ।
निश्चित उनमे  महत श्रेष्ट थे
मोहनदास था जिनका नाम।।४!!
मनुजता के चरम विकास थे
अति उन्नत गिरिवर सा महान ।
स्वार्थ  द्वेष द्वन्द भाव किंचित
पा सके नही मन में स्थान ।।५!।
किंकर्तव्यविमूढ़ बना था जब
गुलामी से शदियों भारत ।
बर्र्बर्ता वर्षो बाद ब्रितानी
सबल हुकूमत से हुए आरत ।।६!

सेवा सदन प्रसाद -
*आक्रोश*
न मैं अखबार पढती 
न ही टी,वी देखती ,
भीङ से अलग 
सियासत से दूर
चुपचाप मै रहती। 
लोग सोचते हैं 
 मैं डर गई
 हादसे से घबर गई, 
 पीङा, कसक
 और वेदना 
  पूरे तन में पसर गई।
    पता नहीं क्यों 
    अहंकारी पुरूष
    अब भी हमें अबला ही कहता, 
     राम के भेष में 
     रावण बन
       अपहरण है करता  ।
      अस्मते लुटा कर 
       अखबार की सुर्खियां
         नहीं बनना चाहती, 
        मिडिया की चिल - पौं
          से है नफरत
          इश्तहार नहीं बनना चाहती। 
         अब वक्त आ गया 
          खड्ग लेकर 
          रणचंडी बनने का, 
           न सांत्वना की जरूरत 
           न ही दिलासा की
            अब और नहीं डरने का। 

वंदना श्रीवास्तव -
*बहुत अंधेरा है*
नये चिराग जलाओ, बहुत अंधेरा है।
चमन को फिर से सजाओ बहुत अंधेरा है।।
**झूठ बेशर्म हुआ, बिक रही शराफत है,
भूख और गरीबी पे, हो रही सियासत है।
मशाल सच की जलाओ, बहुत अंधेरा है।
चमन को फिर से सजाओ, बहुत अंधेरा है।
**नफरतें हुईं हैं बहुत, रंजिशें हुईं हैं बहुत,
राम और रहीम कह के, साजिशें हुईं हैं बहुत।
अब तो कुछ होश में आओ, बहुत अंधेरा है।
चमन को फिर से सजाओ, बहुत अंधेरा है।
**मैं भी तेरे सपनों को सच कर दिखाऊंगी,
अज़ीज़ रिश्तों से घर तेरा सजाऊंगी।
मुझे न ऐसे मिटाओ, बहुत अंधेरा है।
चमन को फिर से सजाओ, बहुत अंधेरा है।
**क्या मैं इंसान नहीं? मुझमें क्या जान नहीं?
मेरा कुछ वजूद नहीं? कोई पहचान नहीं?
मेरे सवाल न टालो, बहुत अंधेरा है।
चमन को फिर से सजाओ,बहुत अंधेरा है।।
     
भारत भूषन शारदा -
*सियासत*
बेशर्मी को मात दे रही जहां सियासत आज,
इज्जत तो आनी जानी है केवल पद है सरताज!
कुर्सी जिनका दीन धर्म है सत्ता है जिनका ईमान, 
बने हुए हैं मेरे देश की किस्मत के वही भगवान!
दोनों हाथों से लूट देश को अपनी झोली भरते,
नहीं जरा संकोच है मन में नहीं किसी से डरते!
खुद को सच्चा सेवक कहते हैं और दूजे को झूठा,
मेरे देश के कर्णधारों ने लोकतंत्र को ऐसे लूटा!
घोटालों की होती जाती निशिदिन लंबी माला,
निकल रहा है हाय देश से नैतिकता का दिवाला!
लोकतंत्र का पावन मंदिर जिसको सब संसद कहते है,
हिस्ट्रीशीटर पद लोलुप नेता इसके अंदर अब रहते हैं!
हल्ला गुल्ला शोर शराबा गाली गलौज है यार, 
संसद विधानसभा बना दिए सब्जी का बाजार!
जिन पर किया विश्वास जिनको जी भर मान दिया था,
लोकसभा और विधानसभा में ऊंचा स्थान दिया था!
नई दिशा देंगे हम सबको जिनसे थी आस लगाई, 
आपस में वही लड़ते हैं करते हैं खुद हाथापाई!
टीवी पर अक्सर ही इनको आपस में लड़ते देखा 
बेशर्मी से पार कर रहे मर्यादा की सब रेखा!
राष्ट्रपिता बापू के नाम की देते हैं दिन रात दुहाई,
सच कहता हूं मेरे देश में आग इन्हीं लोगों ने लगाई!
भाईचारा लहराने लगता गिले-शिकवे सारे मिट जाते,
एक ही स्वर में आनन फानन अपना वेतन भत्ता बढ़वाते!
अविरल गति से महंगाई का चक्कर चलता जाता,
निर्धन कैसे जिए यहां पर नहीं समझ कुछ आता!
कैसा रोग लगा आंखों को नहीं समझ में पाया
बिना दाग का कोई दामन मुझे नजर नहीं आया! 
देश प्रेम की विमल भावना कब और न जाने कहां खो गई!
अब और परीक्षा लो ना भगवान कुछ तरस देश पर खाओ, 
देश प्रेम का नन्हा सा दीपक नेताओं के मन में जलाओ!
लोकतंत्र की गरिमा समझें नेता मर्यादित हो जाएं
एक बार फिर मेरा भारत विश्व गुरु जग में बन जाए!
हर चेहरा खुशियों से चमके मिटे सभी के दुख और क्लेश, 
रोम रोम पुलकित हो बोले जय भारत जय मेरा देश!!

हरि दत्त 'गौतम' -
संस्कृत पढ़ बने सुसंस्कृत सब गुण कूट-कूट कर भरे हुए
थे पूर्ण अहिंसक वीर, नहीं कायरता से वे मरे हुए
अमरीकी शह पर उछले पाकिस्ताॅं का घुस मारा शिकार-----
**अमरीका गाजर घास विषैली संग गेंहू देता उधार
अपनी शर्तों पर घुटने टिकवाने कर कुत्सित विचार
पर नहीं झुके,भारत ने उनके संग किया व्रत सोमवार---
**सादगी महा सरलता अहा, फैलाते पग जितनी चादर
कुछ फटे पुराने कपड़ों में ही काटा कुल जीवन हॅंसकर
अपमान जनक शर्तें ठुकरा कुचला अमरीकी अहंकार---
**देकर किसान को अत्यादर, फिर जगा जवानों का+भिमान
दुनिया चोंका दी नूतन भारत में ला कर स्वर्णिम विहान
समुचित उत्तर देकर उतार डाला चढ़ता चीनी बुखार---
**अद्भुत नेतृत्व पूर्ण साहस दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाई थी
बन शौर्य प्रतीक बहादुर ने हर अरि को धूल चटाई थी
सूरज श्री लालबहादुर का चमकेगा पा शाश्वत  निखार----

दिलशाद सिद्दीकी -
तख्त पर काबिज है जिसने झूठ
की बरसात की 
सर उसका गयाहै जिसने सच्ची
बातकी।
राख कर दी बस्तियां जालिम ने
सोचा न कभी
कितनी मेहनतसे घरों की घुरबा
ने तामीर की।
आज मुन्सिफ बिक रहे हैं जर के बदले मुल्क में
ये हकीकत है बयां बस आजके
हालात की
अबसे पहले कोई भी देखानथा
उसका करम
राज है कुछ इसमें उसने पेश
जो सौगात की।
अहले ईमान को अगर अल्लाह
ने दी दौलत 
खोलकर दिल उसने घुरबा को
बड़ी इमदाद दी।
गम मेरे बच्चोंको हो सुनकर के
मेरी दास्तान
बात इस वजह से छुपाई हैमैंने
हर फिकरात की।
मुश्किलें दिलशाद ये सब हैं
गुनाहों की सजा
क्यों शिकायत फिर करो मुश्किलों आफात की।
(लिप्यांतरण - विजय भटनागर)
आफात = बहुत मुसीबत
घुरबा = गरीब

सतीश शुक्ल, खारघर  -
सुख दुःख की छाया ये जीवन 
सुख दुख अातीजाती परछाई  है 
कभी प्रचंड धूप कभी बदरी छाई है 
जीवनकली काँटों के बीच मुस्काई  है 
यहीजीवन की एक. बड़ी सच्चाई है 
करले कुछ और नए जतन 
मत हो विचलित उद्ग्विन  मन 
पाषाणी पर्वत से ही सरिता बहती
जग तृप्ति दे सागर में  जा मिलती 
जीवनधारा तो निरंतर  आगे ही बढ़ती 
बाधाओं को पार करता साहसी  जीवन 
मतविचलित हो उद्ग्विन मन

चंद्रिका व्यास, खारघर नवी मुंबई -
*हौसला*
 हौसले बुलंद हो तो
 पंख भी आ जाते हैं !
 पिंजरे में कैद पक्षी 
मौके को तलाशता है
 निरंतर पर को झटक 
 अभ्यास वह करता है !
 एक दिन उड़ जाऊंगा 
हौसला वह रखता है 
कटे पंख लिए चिड़िया
 मायूस नहीं होती है 
संघर्ष कर हर तिनका
 उठा वह लेती है !
 चिड़ा (पति) से वह कहती है 
एक दिन उड़ जाऊंगी 
पंख मेरे जब आएंगे
आकाश को चूमती 
चिड़िया पति से कहती है
हौसले बुलंद हो तो
 पंख भी आ जाते हैं !
 हौसले बुलंद हो तो 
सपने भी होंगे पूरे
अंधियारा छट जाएगा
जीवन महकाएगा
हौसला ना छोडूंगी 
तिनका तिनका जोड़ मैं
घोंसला बनाऊंगी !
 जीत गई चिड़िया 
घोंसला बना अपना
 बच्चों को जनम दे 
हौसला उन्हें दिलाया 
पंखों के आ जाते ही
 चुमोगे आकाश तुम भी
 संघर्ष है हमारा जीवन
हिम्मत ना हारना तुम 
गर हौसले बुलंद हो  तो
विजय तुम्हारी होगी !
संघर्ष का जीवन माता
बच्चों को सीखाती है !
गर हौसले बुलंद हो तो
सहारे की जरुरत नहीं
मेरु चीरकर भी बीच से
नदी निकल आती है !
थक कर न बैठना संघर्ष कर
राह अपनी खुद ढूंढना
हौसले बुलंद हो तो 
आगे मंजिल मिल ही जाएगी..2

राम प्रकाश विश्वकर्मा "विश्व" -
कल बसे थे आज वीराने हुए हैं।
उस शहर के लोग पहचाने हुए हैं।।
दोस्तों की शक्ल वाले लोग भी कुछ,
सामने संगीन क्यों ताने हुए हैं??
लड़ रहे हैं जो ग़रीबों का मुकदमा,
हाथ अपने ख़ून से साने हुए हैं।।
लोग कहते हैं कि ये का़तिल नहीं हैं,
इस जगह के आदमी माने हुए हैं।।
काश बातें *"विश्व"* की तुम तो समझ लेते,
क्या कहें उनको जो दीवाने हुए हैं??

दिलशाद शिद्दीकी -
इन्होने अपनी ग़ज़ल रोमन लिपि में दी.

रामेश्वर प्रसाद गुप्ता, कोपरखेराने, नवी मुंबई - 
श्री लाल बहादुर शास्त्री मेरे, 
पूर्व प्रधानमंत्री भारत लाल। 
छोटा कद होकर भी जिसने, 
हुये कामयाब देश के लाल।। 
श्री लाल...................… 1
2 अक्टूबर का पावन दिन है,
जन्में देश में लोकप्रिय लाल।
लाल बहादुर शास्त्री नाम है, 
कर दिया देखो बहुत कमाल।।
श्री लाल...................... 2
छोटे कद के आप थे नेता, 
ताशकन्द में जा हुये हलाल।
यह दुनिया भी अजब भाई, 
नहीं किया कोई भी सवाल?।।
श्री लाल..................…. 3
वह पूर्व प्रधानमंत्री जी थे,
सत्ता में थे कुछ गिने साल।
जै जवान जै किसान बोले,
ऐसे प्यारे थे  अपने लाल।। 
श्री लाल................…....4

अनिल पुरबा 'एहमक' -
मैं मजबूर हूँ, चलो कोई बात नहीं,  
अब छोड़ो भी यार, इसे मेरी पहचान ना बना I
मुझे मोहब्बत है उससे, सिर्फ वही बेखबर है, 
दिल तोड़ने का रकीब, तू कोई नया सबब ना बना I
बेगैरत है दुनिया, आजमा के देख लिया सबने, 
अपनी ईमानदारी का दोस्त, तू इसे गवाह ना बना I
मैं सब हार चुका, तक़दीर ने कैसी बाज़ी खेली,
लाचरियों का मेरे, तो कोई खरीदार ना बना I
पीता नहीं हूँ, यह तो ज़िंदगी का सुरूर है,
ठोकर लगी है बस, तू मुझे शराबी ना बना I
मैं निराशावादी नहीं, बस वक़्त साथ नहीं मेरे, 
सब तबाह हो जाएगा, तू रेत के किले ना बना I
आस्तीन के साँप, कब के डस कर चले गए, 
मेरी फितरत को, तू और जहरीला ना बना I 
नासमझ हूँ भी-नहीं भी, अब कैसे साबित करूँ खुदकों, 
आँकने का मुझे, तू कोई पैमाना ना बना I
सियासत मेरे खून में नहीं, अभी ज़मीर नहीं बेचा मैंने,
गोया लहू को मेरे, तू सफ़ेद ना बना I
मेरी तरक्की का जिम्मा, तेरे हाथ में दे दिया, 
फ़ासलों को हमारे, तू फैसलों पर हावी ना बना I 
मेरी असलियत क्या है, यह जानते हो तुम, 
एहमक ही रहने दे, तू मुझे आदिल ना बना I

शोभना थककर
मुबारक हो मुबारक हो 
तुम्हे जन्म दिन मुबारक हो 
तुम हँसते रहो हसाते रहो
गज़ल गीत गुन गुनाते रहो
दीपक की तरह उजाला 
चारो और फैला ते रहो
फूलों की तरह खुशबू जीवन में 
फैलाते रहो
मुबारक हो मुबारक हो 
तुम्हे जन्म दिन मुबारक हो 

दिलीप ठक्कर " दिलदार"-
साथ में चलने वाले मुझको छोड़ गए, 
न जाने किस बात पे वे मुख मोड़ गए!
जिस डाली पर जीवन के सुख मिलते थे, 
लोग वही पेड़ो की डाली तोड़ गए!
मेरी नज़र में लोग वही सब श्रेष्ठ हुए,
दिल से दिल का रिश्ता यां जो जोड़ गए!
भटका ना मैं राह से सीधा चलता रहा, 
जीवन के इस राह में कितने मोड़ गए!
पत्थर था किस का "दिलदार"पता नहीं, 
कौन थे वे जो लोग मेरा सर फोड़ गए!

हनीफ मोहम्मद -
तीर भी मै हूँ तलवार भी मै हूँ 
 दोनो ही तरफ से बेजार भी मै हूँ। ।
रूह कांपती इस दुनिया में सनम 
बदहवास भी मै हूँ गमखार भी मैं हूँ।।
मिटा दिया हम ने तवारीख के हर हरफ़
मोशननीफ भी मै हूँ नासीर भी मै हूँ।।
हर रात मे रे घर का दिया जलता है 
यह आग भी मै हूँ शरर भी मै हूँ

अलका पाण्डेय -
*आओ याद करें* 
आओ आज याद करे 
बापू के बलिदानों को 
सत्य अंहिसा की लाठी से 
खादी वाली धोती से 
अंग्रेज़ों को ललकारा था 
देश प्रेम जगाया था 
देश का बच्चा बच्चा जाग उठा था 
बापू के क़दमों से कदम मिला 
माँ की रक्षा का , लिया गया था प्रण
माँ को आजादी करायेगे 
जान पर खेल जायेंगे 
बापू 
की सत्य अंहिसा की बाते 
आओ आज याद करे गांधी की बातें 
घर घर में चरख़ा पहुँचाया 
चरखे के ताने बाने से सूत बनाया 
खादी की इस क्रांति  से 
घर घर में खुशहाली आई 
हिंदू - मुस्लिम- सिख - ईसाई 
सबको आपस में गले मिलाया 
एकता का रहस्य समझाया 
गांधी की शांति और अमन से 
डर गये सभी फिंरगी 
नई चाल वो चलने लगे 
घात पर घात करने लगे 
फूट डाल शासन करने लगे 
बापू का तब सर चकराया 
यह रहस्य उन्हें जब समझ आया 
भारत का नया इतिहास रचा 
उठाई सत्य अहिंसा की लाठी 
सत्याग्रह पर बैठ गये 
काँप उठे तब सारे फ़िरंगी 
सत्य प्रेम का पथ अपना कर 
घर घर नव प्रकाश फैलाकर 
बापू तुमने आजादी दिलाई 
आओ आज याद करे 
बापू के बलिदानों को 

नेहा वैद्य -
तितली और कबूतर जैसा दिल अपना,
पता किसी को क्या हम कितना डरते हैं।।
**दिन निकला जब आंखें खोले
टाई सूट बूट संग डोले,
मांगों की भारी गठरी ले खाते रहते हैं हिचकोले
सांसों की दुल्हन को, तन की डोली को ये हिचकोले सचमुच बहुत अखरते हैं।
तितली और कबूतर जैसा दिल अपना पता किसी को क्या हम कितना डरते हैं।।
**शकुनि के पासे-सा हर दिन
चाल बदलता रहता अनगिन
रही प्रतिज्ञा कभी अटल तो समझौते हैं कभी हृदय-बिन
कभी मिलाकर, कभी झुकाकर आंखों को 
जीवन-समर भूमि में रोज़ उतरते हैं। 
तितली और कबूतर जैसा दिल अपना पता किसी को क्या हम कितना डरते हैं।

 हेमन्त दास 'हिम' -
(मैथिली गीत के नीचे हिंदी अनुवाद है)
देशक धरती मुक्त करौलनि, कटलनि सामाजिक बंधन
सच्चाई आ सादगी केँ ओ अजस्र स्रोत केँ नमन।
देशक उर मे बसल रहय छथि ओ महात्मा गांधी अपन।
महात्मा गांधी-2
अत्याचारी अंग्रेज सँ सभ देशवासी तड़पै छल
छूआछूत, जातिपात आ साम्प्रदायिकता केँ छल अनल
सत्याग्रह सँ शत्रु के भगा प्रेम सँ कयलनि अग्निशमन।
देशक उर मे बसल रहय छथि ओ महात्मा गांधी अपन।
महात्मा गांधी-2
धन अरजी मुदा अपना पर नहि, जन के वास्ते खरची
आत्मनिर्भर हो गांव गांव, तहि लेल कुटीर उद्योग, चरखी
हिंसा के जे दूर भगौलानि, बढौलनि हिंदीक प्रचलन।
देशक उर मे बसल रहय छथि ओ महात्मा गांधी अपन।
महात्मा गांधी-2
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(हिंदी शब्दानुवाद)
देश की धरती मुक्त कराये, काटे सामाजिक बंधन
सच्चाई और सादगी के उस अजस्र स्रोत को नमन
देश के उर में बसते हैं आप महात्मा गांधी अपने।
महात्मा गांधी-2
अत्याचारी अंग्रेज से सभी देशवासी तड़प रहे थे
छूआछूत, जातिपात और साम्प्रदायिकता की फ़ैली थी अग्नि
सत्याग्रह सँ शत्रु को भगा, किया प्रेम से अग्निशमन।
देश के उर में बसते हैं आप महात्मा गांधी अपने।
महात्मा गांधी-2
धन अरजें पर निज पर नहीं जन के वास्ते खरचें
आत्मनिर्भर हो गांव गांव, उस लिए कुटीर उद्योग, चरखी
हिंसा को जो दूर भगाये, बढ़ाये हिंदी का प्रचलन।
देश के उर में बसते हैं आप महात्मा गांधी अपने।
महात्मा गांधी-2

चन्दन अधिकारी - 
आओ चलें हम
 प्यार का सागर बन जायें 
परदुख के हर आँसूं  को हम 
प्यार- पथ्य  से पोंछ आयें /
अंधे की हम लाठी बनकर 
राह के साथी बन जायें 
लंगड़े की हम बग्घी बनकर 
मुकाम तक उसे पंहुचा आयें /
वृद्धजनों के हाथ पकड़कर 
कुछ पल उनसे बतियायें 
स्नेह दुआओं की बूटी अपने 
झोले में हम भर लायें /
 ये ऐसा क्यों, वो ऐसा क्यों 
दोषबुद्धि से बच जायें 
प्यार  के कुछ बोल सुनाकर 
हर दिल में हम  बस जायें /

विश्वम्भर दयाल तिवारी -
*अनुशासन*
अगणित जीवन हैं धरती पर
सबके अलग-अलग आकार ।
रखते हैं सब कर्म-धर्म सुधि
क्षमता शक्ति क्षुधा अनुसार ।
 **विविध जीव हैं सृष्टि पालती
सुर दुर्लभ मनुज जीवन है ।
गुण-अवगुण बल-बुद्धि परीक्षा 
प्रजनन जनन निरूपण है ।
**ईश्वर अंश जीव अविनाशी
अनुशासित सदभावों से ।
आकृति प्रकृति धर्म धूपावत
पूर्व कर्म फल छाँवों से ।
उत्कर्षित संप्रेरित रसना 
सुरभित मन सत्संग सुनीति ।
योग-भोग-तप सुख-दुःख तृष्णा 
संकट कष्ट व्याधि पथ रीति । 
अनुशासित है जीव गुणों से
कर्मों से प्लावित आकार ।
रखे अक्षुण्ण गुप्त सद्भावना 
मन ऊर्जित अर्जित संस्कार ।
अनुशासित हो जीव दण्ड से
सुने पढ़े भय देख विचार ।
घर-बाहर जग जाने समझे
भाग्य कर्म-फल विधि अनुसार । 

राजेन्द्र भट्टर -
*कोरोना का उधम* 
 कोरोना वाइरस ,करे उधम 
कर रखा नाक में सबकी दम  
ये कई रंग दिखलाये हमे 
ये तरह तरह से सताये हमें 
कभी खांसी कभी जुकाम करे 
ये सबकी नींद हराम करे 
ये सांस सांस में तंग करे 
कभी खुशबू आना बंद करे 
कभी ये बुखार में तड़फाये 
कभी ऑक्सीजन को तरसाये 
ये तरह तरह के ढाये सितम 
कर रखा नाक में सबकी दम 
इससे बचने की मजबूरी 
तुम रखो बना सबसे दूरी 
मुंह और नाक पर मास्क रखो 
सेनेटाइजर ,सब पर छिड़को 
मत 'हैंड शेक 'का करो 'ट्राय '
दूरी से नमस्ते ,बाय  बाय 
जहाँ भीड़भाड़ हो जाना नहीं 
बाहर का खाना ,खाना नहीं 
घर में घुस ,बैठे रहो हरदम 
कर रखा नाक में सबकी दम 
बंद मनना अब सब त्योंहार 
ना शादी ब्याह में भीड़भाड़ 
बंद है बाजार ,दुकाने सब 
होटल सारे ,मयख़ाने सब 
अब झाड़ू पोंछा ,सब घर का 
खुद करना ,काम न नौकर का 
ऑफिस का काम करो घर से 
ना  निकलो ,कोरोना  डर  से 
ये अब जल्दी न सकेगा थम 
कर रखा नाक में सबकी दम

अंत  में  अध्यक्ष मधु श्रृंगी ने पूर्व में पढ़ी गई रचनाओं पर अपनी टिपण्णी की और अपनी कविता पढ़ी. -
मैं मात्र एक साया हूं,
मेरा अब कोई वजूद नहीं।
मैं जा चुका हूं,सदा के लिए इस दुनिया से दूर,
लेकिन तुम्हारे करीब रहता हूं हर पल।
जब तुम मुझे चारदीवारी में खोजते हो न,
तो दीवार पर चंदन माला में टकीतस्वीर की आंखें,
हर पल पीछा करती रहती है तुम्हारा।
खिन्न हो जाता है मन ,जब देखता हूं,
उजड़ी मांग, सूना ललाट,रूखे होंठ,
बिन चूडियों की कलाइयां, पथराई आंखें,
श्वेत साड़ी में लिपटी, कोई जोगन सी।
ऐसा नहीं है कि तुम मुझे महसूस नहीं करती,
तुम्हारे केश की टपकती बूंदों से भीगता हूं मैं,
रात्रि के आगमन पर तकिए में समा जाता हूं और,
खोजने लगता हूं तुममें, उस अतीत की सुंदर परी को।
तुम अनजाने मे ही लिपट जाती हो मुझसे,
और अनायास ही रोने लगती हो फफक फफक कर।
क्यों करती हो ऐसा?
पौंछ देता हूं, कपोल पर लुढ़कते उन अश्रुओं को,
खोजने लगता हूं,कुदरत की बनाई हुई सुंदर कृति को।
तुम्हें भी तो अहसास होता है मेरे होने का,
कल से तुम फिर सजना, सवंरना।
वही लाल चुनरी,दमकता सिंदूर ,सूरज सी बिंदिया,
होठों पर लाली, देखना चाहता हूं मैं,
फिर वही शौख अदाएं मचलती जवानी वही चुलबुलापन,
मर कर भी अमर हो गया हूं मैं,तुम्हारे प्यार में।
क्यों कि आत्मा हमेशा अमर होती है
                                            
 फिर धन्यवाद ज्ञापन के बाद एक सफल  कार्यक्रम का समापन हुआ.
......
रपट की प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल - editorbejodindia@gmail.com























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